“मुक्तिनाथ महाराज..”

एक परिचय.. एक व्यक्तित्व.. एक यात्रा..

मुक्तिनाथ महाराज का व्यक्तित्व तथा उनकी अध्यात्म यात्रा उनके परिचित तथा पुर्वाश्रम के उनके मित्रों तथा स्नेहिजनों मे स्वत: विदित है। स्वामीजी सहज सुलभ तथा सहज सुगम व्यक्तित्व के धनी है तथा सदैव मदद तथा प्रयास के लिए तत्पर रहेते है, किन्तु हमारी अनेक बार बिनती करने के बावजूद वे नम्रतापूर्वक उनके बारें मे कुछ भी लिखवाने से टालते रहे। यही उनके स्वभाव का भलीभांति परिचय पाने के लिए पर्याप्त है की स्वामीजी स्वयं किसी भी तरह की पब्लिसिटी से एक अंतर बनाए रखना चाहते है। अनेकानेक अनुरोध के बाद हम स्वामीजी के पुर्वाश्रम की कुछ अनसुनी, अनकही बाते जान पाए, उस मे भी मुख्यत: भाव वही रहा की स्वामीजी की यात्रा की शरुआत किन सँजोगों तथा हालातों मे हुई उसे हम समज भी पाए तथा उसका यथायोग्य परिमार्जन कर साधकगण के सामने प्रस्तृत कर पाए, ताकि साधना पथ पर चल रहे, या जिन्होंने अभी अध्यात्म की तरफ अपने कदम बढ़ाए है, उनके लिए स्वामीजी की यात्रा तथा उनकी जीवनी मार्गदर्शन सुलभ करवा सके।

स्वामीजी का पुर्वाश्रम का नाम श्री मनोजभाई जोशी था। उच्च ब्राहमीण  कुटुंब मे जन्म लेने के कारण तथा परिवार मे पूजापाठ तथा भकित कीर्तन, साधना एवं समय समय पर अनुष्ठान का  स्वाभाविक वातावरण होने के कारण श्री मनोजभाई मे बचपन से ही अध्यात्म तथा शिवभक्ति का अंकुर परिप्लावित होने लगा। यंहा एक बात की स्पष्टता जरूरी है की भारतवर्ष मे हरएक ब्राह्मीण कुटुंब मे भगवान देवाधिदेव सदाशिव की आराधना सहजप्राप्य तथा इष्टदेव के रूप मे होती है।

श्री मनोजभाई का स्वाभाविक भक्तिभाव समय के साथ महादेव के प्रति बढ़नेवाली आस्था मे परिवर्तित होता गया, किन्तु उसके साथ ही उनकी महादेव के प्रत्येक स्वरूप के साथ ओतप्रोत होने की अभिलाषा तथा जिज्ञासा भी उम्र के हर पड़ाव पर उनको आकर्षीत् करती गई। यही वजह रही की स्वामीजी ने अपने पुर्वाश्रम मे ही कई तरह की उपलब्धिया अपनी कठिन साधना से तथा महादेव के प्रति निश्छल भक्तिभाव से प्राप्त कर ली। उनकी अनेकानेक साधनाओ तथा संप्राप्तिओ मे ‘छायापुरुष’ की साधना, ज्योतिश विद्या, तथा वैदिक अनुष्ठान विगेरे गणप्राप्यहै। यद्यपि उनका मन इतनी प्राप्ति के बावजूद भी जैसे कचोट रहा था, संतृप्ति का आभास जैसे कोसों दूर था।

मानो परमेश्वर ने स्वामीजी का रास्ता पूर्वनिर्धारित कर रखा हो, अचानक उनके जीवन मे कुछ घटनाओ ने इस तरह आकार लेना शरू किया की उनकी श्रद्धा, आस्था डिगमगा जाए। यह एक तरह से उनकी परिक्षा ही थी किन्तु मनुष्य की आशा की डोर जहां टूटने लगे, एक समय परमात्मा भी साथ छोड़ दे, तथा समग्र संसार भी हमसे विमुख हो जाए, तब एक ही अलौकिक शक्ति हमारा हाथ थामकर हमे भवसागर पार कराती है, वो है सद्गुरु की अप्रतिम शक्ति..

स्वामीजी अपने सांसारिक जीवन मे आए हुए भूचाल से अत्यंत व्यथित होकर प्राण त्यागने तक की मंशा लेकर बैठे थे, मानो कोई हठीला बालक अपने मन:प्रिय खिलौना ना मिलने पर रूठ के बैठ जाए। स्वामीजी का मानसिक समर्पण, उनका भक्तिभाव उनके सद्गुरु देवाधिदेव महादेव तथा उनके परंपरा गुरु भगवान कालभैरव के लिए अखंडित था, किन्तु अभी फल का सम्पूर्ण पकना तथा रसीले, मधुर एवं तृप्त करने वाले सुफल मे बदलना बाकी था, और वह संसार की झुलसा देने वाली मायारूपिणी अप्रत्याशित गर्मी के संयोग से ही संभव था। अध्यात्म की इन गहेराइयों से अनजान स्वामीजी की मानसिक पीड़ा जब उसकी चरम सीमा पर पहुंची तब स्वयं ब्रह्मांड अधीश्वरी, भगवती पराम्बा आदिशक्ति ने उन का हाथ थाम लिया। स्वामीजी को अंत:स्तल की परिपाटी पर एक नितांत दिव्य अनुभूति हुई.. जिसे शब्दों मे वर्णित कर पाना कठिन है। यह तबकी बात है जब स्वामीजी ने अपने सांसारिक जीवन का त्याग नही किया था, एवं उनका पीड़ित मन आशा के किसी तिनके की खोज मे दरबदर भटक रहा था। यह भी गनीमत था की एक पढ़ालिखा मॉडर्न इंसान जिस का स्वयं का कारोबार है, समाज मे ख्याति प्राप्त है, उसकी व्यवसायित्मीका बुद्धि जो सम-विषम के पलड़ों मे झूलती रहेती है, भला अचानक हुई इस दिव्यानुभूति को कैसे सराह पाता?

स्वामीजी की प्रताड़ित आत्मा तथा निराश मन को एक अवसर की प्रतीक्षा थी, और भगवती पराम्बा मा हरसिद्धि जो स्वामीजी की अध्यात्म गुरु भी है, तथा उनकी कुल परंपरा की मुख्य देवी भी है, उसी महामाया ने फिर एक बार माया का निर्माण कर स्वामीजी का पथ प्रदर्शित किया तथा उन्हे भविष्य के लिए सुसज्ज भी किया.. ये भगवती का कृपाप्रसाद ही था की स्वामीजी अपने जीवन मे वापिस संतुलन बना पाए। किन्तु अध्यात्म की यात्रा कभी सुगम नहीं होती, पग पग पर आत्मबल की कठिन परिक्षाये होती है और पैर लड़खड़ा जाना स्वाभाविक है। भगवती के स्वयं साक्षात्कार के बाद अगला पड़ाव था देवाधिदेव के चरणों मे संपूर्ण समर्पण तथा आत्मनिवेदन का, जो की कतई आसान नही था। यह वो पड़ाव था जहां मन, बुद्धि, प्राण, प्रकृति तथा आत्मा तक को छिन लिया जाता है और जो शेष रहेता है, वो है दिव्य सान्निध्य की अनुभूति तथा बूँद की सागर मे मिल जाने की प्रक्रिया.. स्वामीजी के इस आखिरी पड़ाव को पार करवाने के लिए भगवान स्मशानभैरव जो प्रखर क्रोधी तथा उग्र शिवगण है, स्वयं पधारे तथा स्वामीजी के अस्तित्व मे रहीसही जन्मजन्मांतर की वासनाए, अहंकार तथा परमात्मा से अलिप्त स्वयं को देखने की द्रष्टी को तार तार कर जैसे झुलसा दिया। भगवान स्मशान भैरव की दिव्य खड़ग से निकली ज्वालाओ ने स्वामीजी को अपने गंतव्य तक पहुँच दिया जहां भगवान कालभैरव का संदेश उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

मै तेरा,

पर तेरा सबकुछ मैरा।

शब्द ब्रह्म की साधना शायद इसी को कहेते है जहां शब्द इक बीज के रूप मे ह्रदय के अंतिम स्तर पर् आरोपित कर दिया जाता है। स्वामीजी ने स्वप्न मे मिले आदेश को –

‘मोक्षमूलं गुरुर्वाकयं’-

मानकर स्वयं को अध्यात्म के उस दुर्गम पथ पर अग्रेसर कर दिया जहां हर किसी को अपने मार्ग का चयन भी स्वयं ही करना पड़ता है तथा उसपर चलना भी स्वयं ही पड़ता है। शायद इसीलिए स्वामीजी ने गुजरात राज्य के एक छोटे से शहर वड़नगर मे अपना आश्रम तो प्रस्थापित कर लिया किन्तु उसे भगवान कालभैरव, जो की स्वामीजी की अध्यात्म यात्रा के पथदर्शक भी है, और संरक्षक भी, उनको समर्पित कर दिया है।

मुक्तिनाथ महाराज ने गुरुआज्ञा से तथा समर्पण भाव से सन्यास परंपरा का निर्वहन किया है, तथा अपने सांसारिक कर्तव्य को भी बखूबी निभा रहे है। यही बात उनके व्यक्तित्व को और भी अनुठा बनाती है, की जहां एक और हमारा उनसे पहेली बार मिलना संभव हुआ, वह बिल्कुल जीन्स तथा शर्ट धारण कीये हुए, एक सामान्य मनुष्य की तरह अपने क्रियाकलाप कर रहे थे, किन्तु जब उनसे अध्यात्म की चर्चा हुई तो उनके गहन ज्ञान, सरल स्वभाव तथा गूढ साधनाओ के क्रम को देखकर उनके लिए सम्मान और भी बढ़ गया॥

स्वामीजी अपने वड़नगर स्थित आश्रम मे प्राय: साधना मे लीन रहेते है, किन्तु साधक से संसारी तक हर किसी की समस्या का गुरुदेव की प्रेरणा अनुसार समाधान ढूँढने मे भी तत्पर रहेते है, और वो भी बिना किसी अपेक्षा तथा उम्मीद के। स्वामीजी के आश्रम का परिचय तथा पता निम्नलिखित है। किन्तु साधकगण से अनुरोध है की स्वामीजी की अनुकूलता तथा उन से आज्ञा प्राप्त कर के ही आश्रम की भूमि पर पैर रखे। चूंकि आश्रम स्वयं भगवान कालभैरव को समर्पित तथा उनकी स्वयं ऊर्जा भी वहां के कण कण मे सम्मिलित है, जिस का उच्च कक्षा के साधकगण स्वयं भी अनुभव कर सकते है। यह कहेना पर्याप्त होगा की स्वामीजी का किसी भी पब्लिसिटी या लौकिक व्यवहार से दूर रहेने का निर्णय भी इस बात की पुष्टि करता है।

जो श्रद्धालु स्वामीजी से संपर्क करना या उनसे व्यक्तिगत तौर पर भेट करना चाहते है, कृपया नीचे दिए गए नंबर पर संपर्क कर अपना पंजीकरण करवाए ताकि स्वामीजी की साधना मे अत्यधिक विक्षेप ना हो | अस्तु

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